जब-जब भी मुसलमानों का त्यौहार ईद आता है तब तक तथाकथित शाकाहारी लोग जीव हत्या
और बकरे की बलि आदि का पुरजोर विरोध करने लगते हैं और अपने आप को श्रेष्ठ साबित
कर शाकाहार को श्रेष्ठ बताते हैं।
बाद में वे ही लोग ईद की मुबारकबाद देते हैं जो मांसाहार को अप्रत्यक्ष रूप से
बढ़ावा देना है, इससे फायदा यह होता है की वे अपना व्यवहार और व्यक्तिगत संबंध
बचा लेते हैं।
जब यह ईद की मुबारकबाद देते हैं तब इनके अंदर का
शाकाहारी जीव आत्महत्या कर लेता है। शाकाहारियों का मानना है कि मांस खाना और
जीवो की हत्या करना महापाप है, बिल्कुल पाप है निश्चित तौर पर पाप है लेकिन क्या
शाकाहारी लोग निष्पाप हैं निष्कलंक है नहीं बिल्कुल नहीं वे भी उतने ही पापी हैं
जितने कि मांसाहारी लोग और उनसे कहीं ज्यादा।
सन 1901 में जगदीश चंद्र बसु ने सिद्ध किया था कि पेड़ पौधों में जीवन होता है।
अब साफ हो चुका है कि पेड़ पौधों में जीवन होता है तो उनको तोड़कर मरोड़कर,
उखाड़ कर, उनका शाक, फल,फूल खाना हत्या नहीं है ?
इसी संबंध में मलूक दास ने भी कहा है -
हरी डारि ना तोड़िए, लागै छूरा बान । दास मलूका यों कहै, अपना-सा जिव जान ॥
यानी एक शाकाहारी व्यक्ति पेड़ के फल फूल, पत्ते, डाली को तोड़ें तो भी वे उस
पेड़ या पौधे को जख्म दे रहा है बिल्कुल किसी छुरा या बाण के घाव के जैसा इससे
पौधों पर हिंसा नहीं होती क्या?
इसी हिंसा और पेड़ पौधों की व्यथा को शिवमंगल सिंह सुमन ने समझा और उसे शब्दों का
रूप दिया -
जब जग मुझे तोड़ने आता, मैं हँस-हंस रो देता जब मुझ पर तुम हाथ उठाती, मैं
सुधि-बुधि खो देता हृदय तुम्हारा-सा ही मेरा इसको यों न मरोड़ो देखो मालिन मुझे न
तोड़ो।
ह्रदय पशुओं में और पौधों में दोनों में एक जैसा होता है अगर मांसाहारी लोग पशुओं
के हृदय को मार रहे हैं तो यहां शाकाहारी लोग पेड़ पौधों के ह्रदय को कौन सा पोषक
तत्व प्रदान कर रहे हैं बे भी तो मार ही रहे!
अब यह निर्णय शाकाहारियों को करना है कि पेड़ पौधों के फल फूलों को तोड़
कर, मरोड़ कर, काट कर, पाप का भागी बनना है या अपना जीवन बचाना है। क्योंकि पेड़
पौधों में भी चेतना है उनमें भी जीवन है उन्हें भी दर्द होता है।
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1 टिप्पणियाँ
सानदार
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